वांछित मन्त्र चुनें

आपो॑ अ॒द्यान्व॑चारिषं॒ रसे॑न॒ सम॑गस्महि। पय॑स्वानग्न॒ आ ग॑हि॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

āpo adyānv acāriṣaṁ rasena sam agasmahi | payasvān agna ā gahi tam mā saṁ sṛja varcasā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आपः॑। अ॒द्य। अनु॑। अ॒चा॒रि॒ष॒म्। रसे॑न। सम्। अ॒ग॒स्म॒हि॒। पय॑स्वान्। अ॒ग्ने॒। आ। ग॒हि॒। तम्। मा॒। सम्। सृ॒ज॒। वर्च॑सा॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:23» मन्त्र:23 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:12» मन्त्र:3 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:23


बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे जल किस प्रकार के हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (रसेन) स्वाभाविक रसगुण संयुक्त (आपः) जल हैं, उनको (समगस्महि) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, जिनसे मैं (पयस्वान्) रसयुक्त शरीरवाला होकर जो कुछ (अन्वचारिषम्) विद्वानों के अनुचरण अर्थात् अनुकूल उत्तम काम करके उसको प्राप्त होता और जो यह (अग्ने) भौतिक अग्नि (मा) तुझको इस जन्म और जन्मान्तर अर्थात एक जन्म से दूसरे जन्म में (आगहि) प्राप्त होता है अर्थात् वही पिछले जन्म में (तम्) उसी कर्मों के नियम से पालनेवाले (मा) मुझे (अद्य) आज वर्त्तमान भी (वर्चसा) दीप्ति (संसृज) सम्बन्ध कराता है, उन और उसको युक्ति से सेवन करना चाहिये॥२३॥
भावार्थभाषाः - सब प्राणियों को पिछले जन्म में किये हुए पुण्य वा पाप का फल वायु जल और अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा इस जन्म वा अगले जन्म में प्राप्त होता ही है॥२३॥
बार पढ़ा गया

स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

वयं या रसेन युक्ता आपः सन्ति ताः समगस्महि, याभिरहं पयस्वान् यत्किंचिदन्वचारिषं कर्मानुचरामि, तदेव प्राप्नोमि योऽग्निर्जन्मान्तर आगहि प्राप्नोति, स पूर्वजन्मनि तमेव कर्मानुष्ठातारं मा मामद्य वर्चसा संसृज सम्यक् सृजति ताः स च युक्त्या समुपयोजनीयः॥२३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आपः) जलानि (अद्य) अस्मिन् दिने। अत्र सद्यः परुत्परार्य्यै० (अष्टा०५.३.२२) अनेनायं निपातितः। (अनु) पश्चादर्थे (अचारिषम्) अनुतिष्ठामि। अत्र लडर्थे लुङ्। (रसेन) स्वाभाविकेन रसगुणेन सह वर्त्तमानाः (सम्) सम्यगर्थे (अगस्महि) सङ्गच्छामहे। अत्र लडर्थे लुङ्, मन्त्रे घसह्वरणश० इति च्लेर्लुक् वर्णव्यत्ययेन मकारस्थाने सकारादेशश्च। (पयस्वान्) रसवच्छरीरयुक्तो भूत्वा (अग्ने) अग्निर्भौतिकः (आ) समन्तात् (गहि) प्राप्नोति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् बहुलं छन्दसि इति शपो लुक् च। (तम्) कर्मानुष्ठातारम् (मा) माम् (सम्) एकीभावे (सृज) सृजाति। अत्र व्यत्ययो लडर्थे लोट् च। (वर्चसा) दीप्त्या॥२३॥
भावार्थभाषाः - सर्वान् प्राणिनः पूर्वाचरितफलं वायुजलाग्न्यादिद्वाराऽस्मिञ्जन्मनि पुनर्जन्मनि वा प्राप्नोत्येवेति॥२३॥
बार पढ़ा गया

माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व प्राण्यांना मागच्या जन्मी केलेल्या पुण्य किंवा पापाचे फळ वायू, जल व अग्नी इत्यादी पदार्थांद्वारे या जन्मी किंवा पुढच्या जन्मी प्राप्त होते. ॥ २३ ॥